Wednesday, July 27, 2016

काश मैं जानती

धीरे धीरे उम्र की दहलीज
मुझे खींच लायी दूर कहीं 
न मां न पापा का डर 
मेरी अपनी छोटी सी दुनिया 

ना जाने कब कोई मन में समाया 
खींच तान चली और 
 जीत चली मैं ज़िद में 
सबने समझाया पर ना मानी 

शादी और परिवार के ख़्वाब 
दिन बने साल और मैं जीती 
सब कुछ भुला चली थी 
मां पिता जैसे विरोधी  

एक दिन गुपचुप शादी 
कर चली दहलीज पार                       
नए परिवार में सब भूल गयी 
दीवाली भी आयी 

उजडी मां की मांग  
मेरी ज़िद से पिता हारे 
जीवन से भी हार मान ली 
वर्दी के बिना पिता 

ना सह सके वो सदमा 
लिया रात में जहर और 
कर चले विदा हमें 
वाकई मैं जीत कर भी 
पूरी तरह हार गयी !





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