Sunday, April 17, 2016

बदलते सच !!

मन में हाहाकार मचा
शोख थी अब हो गयी
गंभीर सब समझती
अनजाने अल्हड़ता
दफना चुकी संजीदगी में !!

क्या किसी को थी खबर ?
एक मुखौटे में छिपा गयी
कितने ही अनजाने सच !!
ये सच भी तो बदलते हैं
रिश्तों के तहत !!

मेरे सच झूठ हो जातेअक्सर ,
झूठ तो सरेआम सच हो गए !!
थी ये गुस्ताखी मेरी पर ,
मजबूर सी हो चली थी अब
ना था होश ना किसी का डर !!

सच से क्यों और कैसा डर ?
ना चाहूं और मुखौटे मैं !!
दम घुटने लगा है इस खेल में
सच झूठ और झूठ सच बने ,
कैसे , क्यों मैं गयी बदल ?

मां से रिश्ते थे कमजोर
मैं ही थी कमजोर ?
मन की उथल -पुथल
किये थी परेशान !
कैसे बताऊं मेरी उलझन ?
कौन है मेरा अपना ?

सब थे मेरे अपने लेकिन
मुखौटे से परे सब बेगाने से !
हमें जुड़े रहने का
नाजुक सा रिश्ता तो
तोड़ गई एक सांस
फिर क्यों
इतनी परेशानी ?

मन को झकझोर मैं
चल निकली अलग दिशा में !
जहाँ कोई नकली चेहरा
ना मुझे मजबूर करे
हंसने और रुलाने पर !!
ख़त्म हो चुकी मेरी सरहदें !!




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