Sunday, October 11, 2015

जीने की आस

जीते जी मरते हैं कितने ही अक्सर
मरते हैं जीने को लोग अक्सर 
जिंदगी रास नहीं आती सबको 
जिंदगी जीने की आस नहीं सबको 
लेकिन ज़िंदगी जीना ही तो है 
दूसरों की खातिर ही सही !
बदलते रिश्ते और जरूरतों 
के गुलाम हैं हम और 
जिंदगी हमें हर पड़ाव पर 
देती है सवाल  जीने का !
कैसे पार करें ये दरिया 
है यही मन की सिहरन 
है हिम्मत मन में
पार कर ही लेंगे हम 
है उम्मीद हमें खुद से 
जीने की खातिर 
कुछ तो कर दिखायें हम !
लोग आसमान को छू लेते हैं 
हम तो सिर्फ जीना चाहते हैं !!

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