Tuesday, December 1, 2015

आखिर कब तक ?

सच और झूठ के मुखौटे आखिर कब तक ?
इंसान की कद्र होगी उसके पैसों से कब तक ?
रिश्तों की खुशबू ज़िंदा रहेगी लेकिन 
उसकी परवाह करना लोग समझेंगे कब तक ?
क्यों मैं इन दफनाये रिश्तों की सिसकियों से 
डरता फिरता हूं न जाने 
अक्सर ही खुद को ढूंढता फिरता हूं ,
इन सर्द लोगों की भीड़ में 
अपने दर्द सीने में छुपाये नकली मुस्कान 
अपने चेहरे पर चिपकाए आखिर 
खुद से ही लड़ता रहूंगा कब तक ? 
ऐ खुदा तूने मुझे इंसान बनाकर 
सजा दी या जिंदगी बख्शी ,
मैं कितने समय ये भार दिल में उठाये 
जीते जी मरता रहूंगा और
ये सिलसिला चलता रहेगा कब तक?
मैं भी तो एक जीता-जागता इंसान हूं 
ये दुनिया मुझसे जीने का हक़ 
आखिर छीनती रहेगी कब तक ??? 


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