सच और झूठ के मुखौटे आखिर कब तक ?
इंसान की कद्र होगी उसके पैसों से कब तक ?
रिश्तों की खुशबू ज़िंदा रहेगी लेकिन
उसकी परवाह करना लोग समझेंगे कब तक ?
क्यों मैं इन दफनाये रिश्तों की सिसकियों से
डरता फिरता हूं न जाने
अक्सर ही खुद को ढूंढता फिरता हूं ,
इन सर्द लोगों की भीड़ में
अपने दर्द सीने में छुपाये नकली मुस्कान
अपने चेहरे पर चिपकाए आखिर
खुद से ही लड़ता रहूंगा कब तक ?
ऐ खुदा तूने मुझे इंसान बनाकर
सजा दी या जिंदगी बख्शी ,
मैं कितने समय ये भार दिल में उठाये
जीते जी मरता रहूंगा और
ये सिलसिला चलता रहेगा कब तक?
मैं भी तो एक जीता-जागता इंसान हूं
ये दुनिया मुझसे जीने का हक़
आखिर छीनती रहेगी कब तक ???
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