खिड़की के पास बैठी ,
देखती डाकिये को हर दिन
शायद आज कोई लिखे
मुझे भी एक चिठ्ठी !
हर दिन करती इंतज़ार
एक दिन पूछ ही लिया ,
सिर्फ मुझे कुछ देते ही नहीं
क्या मुझे कोई भी
नहीं करता प्यार ?
उस दिन के बाद ,
हर दूसरे दिन आती
प्यार भरी सौगात लिए
मेरे भी नाम एक चिठ्ठी !
मैं भी बड़ी हो चली थी
समझने भी लगी थी ,
कुछ दिनों न डाकिया आये
और न ही कोई चिठ्ठी !
माथा ठनका , क्या हुआ ?
पता चला डाकिये चाचा
चल बसे चुपचाप !
फिर वही इंतज़ार
पूछा तब जाना ये राज़ ,
डाकिये चाचा ही लिखते थे
मुझे रात में प्यार भरे खत !
मैं चल नहीं सकती थी
मेरी तो दुनिया ही थी
मेरी छोटी सी खिड़की !
और उसमे प्यार की
सौगात लाते थे
मेरे प्यारे डाकिये चाचा !!
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