Thursday, August 13, 2015

सिवा सच्चे प्यार के

दूर आसमान में चमक रहा चांद ,
उठी मन में एक हलचल ,
मन कहीं ढूंढता एक दिलासा ,
भूखा फिरता है मन यहां वहां ,
सब कुछ मिल जाता है ,
सिवा सच्चे प्यार के ,
तरसे मन को कहीं कोई मिल जाता ,
जो झूठा ही सही प्यार तो करता !

हर कुछ मिलते इस जहां में ,
क्यों इंसान इतना रूखा हो चला ,
प्यार तो जैसे दुकानो में बिकता हो ,
सब कुछ है घरों में , 
मन तो उजाड़ हैं प्यार के बिना , 
प्यार सिमट चला है एक और दो में , 
परिवार ही नहीं मन भी सिमट चले हैं !

याद आते हैं अक्सर वो दिन , 
बर्तन खाली हों चाहे ,
मन में था प्यार लबालब भरा 
सीमा बद्ध नहीं ,
असीमित और निष्कपट ,
आज तो हम सीमा में इस हद तक 
बंध चुके कि बातें भी नाप तौल के 
करते हैं, मुस्कान भी सिर्फ 
कोनों से लौट जातीं हैं 
जैसे ज्यादा होने पर 
इनकम टैक्स लग जाए !

बदल चुकीं हैं परिभाषाएं ,  
हम खड़े हैं वहीँ यादों में खोये 
यादों में ही सही सच्चे प्यार 
की झलक तो देती मन को 
तसल्ली और चाह जीने की 
वरना आज तो प्यार भी 
चांद की तरह दूर हो चला है !! 

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