Monday, August 3, 2015

न जाने क्यूं

न जाने क्यूं मन आज चटका
उदासी की झीनी चादर ओढ़े 
बरबस ही भर आईं आंखें ,
कभी कहीं कही सुनी 
बातों में छुपे शर मन 
विक्षत कर गए गहरे तक ,
एक सवाल भी उठा गए 
हम क्यों ये बोझ जिंदगी भर 
उठाये फिरें ? किसके लिए ?
कौन है अपना? कौन पराया ?
मन ही अपना नहीं फिर 
कैसा शिकवा ? 
छोटी सी दुनिया मन में 
मन भी तो मेरा रहा नहीं !
मन तो सबने तोड़ दिया , 
छीन लिया , विक्षत किया ,
आज भी मन में लेकिन 
है चाहत एक झलक की ,
एक झूठी मुस्कान की , 
एक झूठी उम्मीद की 
शायद सब कुछ बदले
मेरी दुनिया भी बदले 
वीरानी तब्दील हो आबादी में , 
शायद वो दिन यहीं कहीं हो 
मेरे इंतज़ार में !!


   

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