न जाने क्यूं मन आज चटका
उदासी की झीनी चादर ओढ़े
बरबस ही भर आईं आंखें ,
कभी कहीं कही सुनी
बातों में छुपे शर मन
विक्षत कर गए गहरे तक ,
एक सवाल भी उठा गए
हम क्यों ये बोझ जिंदगी भर
उठाये फिरें ? किसके लिए ?
कौन है अपना? कौन पराया ?
मन ही अपना नहीं फिर
कैसा शिकवा ?
छोटी सी दुनिया मन में
मन भी तो मेरा रहा नहीं !
मन तो सबने तोड़ दिया ,
छीन लिया , विक्षत किया ,
आज भी मन में लेकिन
है चाहत एक झलक की ,
एक झूठी मुस्कान की ,
एक झूठी उम्मीद की
शायद सब कुछ बदले
मेरी दुनिया भी बदले
वीरानी तब्दील हो आबादी में ,
शायद वो दिन यहीं कहीं हो
मेरे इंतज़ार में !!
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