Monday, August 3, 2015

बदलते रिश्ते

अक्सर ही मैंने रिश्तों को
जीते जी मरते देखा है,
मरने पर लोगों को
बेवजह रोते देखा है।  
जीते जी जो एक दूसरे की
कदर ही नहीं करते , 
उनको भी दिल खोलकर
झूठी बातें कहते देखा है। 
क्यूं लोग इस कदर
झूठ को ओढ़े फिरते हैं,
अक्सर ही अपने दिल में
इस सवाल को घूमते देखा है। 
हमने तो आज तक रिश्तों को
बदलते समय के साथ ,
बदलते बदलते मरते ही देखा है। 
इंसान को भगवान ने
बख्शी एक अमानत , 
लेकिन हमने सरेआम
इस अमानत को लुटते देखा है।
जो सर पर छत और
दो जून खाने को तरसते हैं , 
अक्सर ही उनके
मन में सच्चा प्यार देखा है।  
खुदा तूने क्यों ये दुनिया बनाई , 
सब कुछ होते भी लोगों को
झूठी दुनिया में जीते देखा है।  
रिश्ते जो ख़ुशी का उद्गम होते हैं ,
उनको सरेआम लोगों को
बेनाम करते देखा है। 
हमसे तो बेहतर वो चंद होते है ,
जो कम से कम
रिश्तों का झूठा दम तो नहीं भरते। 
जिन किसी हाथों ने उनको संवारा , 
उन हाथों को जीते जी
वो आबाद करते हैं। 
काश हम सीख पाते रिश्तों को बनाना ,
जिनकी मिठास ने
हमें गुलाम बनते देखा हैं।

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